विचरता मन
दौड़ता, विचरता ये घूमता मन
भरा रहता है बहुत कुछ
मन के भीतर..
और हम और..और भरते जाते हैं
हर बार, लगातार
सबसे छुपाकर..
और पता ही नही चलता
कि कब बन गया है
ये मन
बस एक कूड़े का ढेर
वह लेखनी
दब जाती हैं उन पराठों की पर्तों के नीचे..
वह कथानक
चिपके रह जाते हैं कड़ाही की तली में ..
वह विचार
उड़ जाते हैं धुएँ के साथ ही ऊपर..
जिनको बनाते समय रचता है मन....।
(लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा जागरण मंच के राष्ट्रीय महामंत्री है )