भगवान परशुराम जन्मोत्सव विशेष

भगवान परशुराम जन्मोत्सव विशेष
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महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिक का विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से हुआ था। विवाह के बाद सत्यवती ने अपने ससुर महर्षि भृगु से अपने व अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब महर्षि भृगु ने सत्यवती को दो फल दिए और कहा कि ऋतु स्नान के बाद तुम गूलर के वृक्ष का तथा तुम्हारी माता पीपल के वृक्ष का आलिंगन करने के बाद ये फल खा लेना। किंतु सत्यवती व उनकी मां ने भूलवश इस काम में गलती कर दी। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि तूने गलत वृक्ष का आलिंगन किया है।


   इसलिए तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा। तब सत्यवती ने महर्षि भृगु से प्रार्थना की कि मेरा पुत्र क्षत्रिय गुणों वाला न हो भले ही मेरा पौत्र (पुत्र का पुत्र) ऐसा हो। महर्षि भृगु ने कहा कि ऐसा ही होगा। कुछ समय बाद जमदग्रि मुनि ने सत्यवती के गर्भ से जन्म लिया। इनका आचरण ऋषियों के समान ही था। इनका विवाह रेणुका से हुआ। मुनि जमदग्रि के चार पुत्र हुए। उनमें से परशुराम चौथे थे। इस प्रकार एक भूल के कारण भगवान परशुराम का स्वभाव क्षत्रियों के समान था।


राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र विष्णु के अवतार परशुराम शिव के परम भक्त थे। इन्हें शिव से विशेष परशु (कुल्हाड़ी) प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था किन्तु शंकर द्वारा प्रदत अमोघ परशु को सदैव धारण किए रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में हैं गिने जाते हैं।


   जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीय (वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीय तिथि) को हुआ था। अतः इस दिन व्रत करने व उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।


उनकी माता जल का कलश भरने के लिए नदी पर गई। वहां गंधर्व चित्ररथ अप्सराओं के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। उसे देखने में रेणुका इतनी तन्मय हो गई कि जल लाने में विलंब हो गया तथा यज्ञ का समय व्यतीत हो गया। उसकी मानसिक स्थिति समझकर जमदग्नि ने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चारों बेटों को मां की हत्या करने का आदेश दिया। किन्तु परशुराम के अतिरिक्त कोई भी ऐसा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। पिता के कहने से परशुराम ने माता का शीश काट डाला। पिता के प्रसन्न होने पर उन्होने परशुराम को वर मांगने को कहा तो उन्होंने चार वरदान मांगे। 1. माता पुनर्जीवित हो जाएं, 2. उन्हें मरने की स्मृति न रहे, 3. भाई चेतना युक्त हो जाएं और 4. मां परमायु हो। जमदग्नि ने उन्हें चारों वरदान दे दिए।


दुर्वासा की भांति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात हैं । एक बार कार्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से परशुराम के पिता जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।


रामावतार में श्री रामचन्द्र द्वारा शिव का धनुष तोड़ने पर ये क्रुद्ध होकर आए थे। इन्हेांने परीक्षा के लिए उनका धनुष श्री रामचन्द्र जी को दिया था। जब श्री रामचन्द्र जी ने धनुष चढ़ा दिया तो परशुराम समझ गए कि रामचन्द्र विष्णु के अवतार हैं।


   इसलिए उनकी वन्दना करके वे तपस्या करने चले गए। परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवाई थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र से पीछे हटकर गिरिश्रेष्ठ महेन्द्र पर निवास किया।


रामजी का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गए और राजा  दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रिय संहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा।


   राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। रामजी ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किए। परशुराम एक वर्ष तक लज्ज्ति, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तद्न्तर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।


परशुराम कुंड नामक तीर्थस्नान में पांच कुंड बने हुए हैं। परशुराम ने समस्त क्षत्रियों का संहार करके उन कुंडों की स्थापना की थी तथा अपने पितरों से वर प्राप्त किया था कि क्षत्रिय संहार के पाप से मुक्त हो जाएंगे। 


जानापाव पहाड़ी का संक्षिप्त परिचय एवं धार्मिक एवं पौराणिक महत्व
इस स्थल को जानापाव कहने के बारे में जनश्रुति है। परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि ने परशुराम को अपनी माँ का सिर काटने का आदेश दिया था। उन्होंने यह कार्य करके पिता को कहा कि अब मुझे माँ जीवित चाहिए। तब ऋषि ने अपने कमण्डल से जल छींटा तो माँ में वापस जान आ गई थी। इसलिए इसका नाम जानापाव यानी जान वापस आना पड़ा।


    इन्दौर जिले की महू तहसील से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर विन्ध्याचल पर्वत की श्रृंखला में धार्मिक एवं पौराणिक महत्व का स्थान जानापाव स्थित है। जानापाव में भगवान परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि ने जनकेश्वर शिवलिंग की स्थापना कर अत्यन्त कठोर तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिवजी ने महर्षि जमदग्नि को वरदान स्वरूप समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली कामधेनू गाय प्रदान की थी।
    वर्षों पूर्व जानापाव पहाड़ी ज्वालामुखी का उद्गम स्थल था। ज्वालामुखी के लावे से ही मालवा क्षेत्रा में काली मिट्टी का फैलाव हुआ था। वर्तमान में यह बिन्दुजल कुण्ड के रूप में विद्यमान है। नदियों का उद्गम स्थलः जानापाव पहाड़ी की मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ से सात नदियों का उद्गम हुआ है। इनमें से तीन नदियाँ चोरल, गम्भीर एवं चम्बल मुख्य हैं। शेष चार सहायक नदियाँ नखेरी, अजनार, कारम और जामली हैं।
प्रति वर्ष अक्षय तृतीया को जानापाव में भगवान परशुराम जी का जन्मोत्सव बडे़ पैमाने पर मनाया जाता है। साथ ही एक मेले का भी आयोजन किया जाता है। प्रति वर्ष नवरात्रि एवं भूतड़ी अमावस्या को भी मेले का आयोजन किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भूतड़ी अमावस्या को जानापाव के कुण्ड में स्नान करने से भूतप्रेत बाधा एवं समस्त शारीरिक रोगों का नाश होता है। अतः इस मेले में देश, प्रदेश के समस्त श्रद्धालु बड़ी संख्या में भाग लेते हैं।
परशुराम और सहस्रबाहु की कथा
राम चरितमानस में आया है कि ‘सहसबाहु सम सो रिपु मोरा’ का कई बार उल्लेख आया है। महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे।


    सहस्त्रार्जुन का वास्तविक नाम अर्जुन था। उन्होने दत्तत्राई को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। दत्तत्राई उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वरदान मांगने को कहा तो उसने दत्तत्राई से एक हजार हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद उसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा। इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर भी कहा जाता है। 
कहा जाता है महिष्मती सम्राट सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चुका था। उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी। वेद-पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था।
एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना के साथ झाड-जंगलों से पार करता हुआ जमदग्नि ऋषि के आश्रम में विश्राम करने के लिए पहुंचा। महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी।


    कहते हैं ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी। महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया। कामधेनु के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा। उसके मन में ऐसी अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को मांगा।


    किंतु ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु को आश्रम के प्रबंधन और जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया बताकर कामधेनु को देने से इंकार कर दिया। इस पर सहस्त्रार्जुन ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और कामधेनु को ले जाने लगा। तभी कामधेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गई।
    जब परशुराम अपने आश्रम पहुंचे तब उनकी माता रेणुका ने उन्हें सारी बातें विस्तारपूर्वक बताई। परशुराम माता-पिता के अपमान और आश्रम को तहस नहस देखकर आवेशित हो गए। पराक्रमी परशुराम ने उसी वक्त दुराचारी सहस्त्रार्जुन और उसकी सेना का नाश करने का संकल्प लिया।


    परशुराम अपने परशु अस्त्र को साथ लेकर सहस्त्रार्जुन के नगर महिष्मतिपुरी पहुंचे। जहां सहस्त्रार्जुन और परशुराम का युद्ध हुआ। किंतु परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर कर उसका वध कर दिया। सहस्त्रार्जुन के वध के बाद पिता के आदेश से इस वध का प्रायश्चित करने के लिए परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गए।


    तब मौका पाकर सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने अपने सहयोगी क्षत्रियों की मदद से तपस्यारत महर्षि जमदग्रि का उनके ही आश्रम में सिर काटकर उनका वध कर दिया। सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला। माता रेणुका ने सहायतावश पुत्र परशुराम को विलाप स्वर में पुकारा। जब परशुराम माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुंचे तो माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे।


    यह देखकर परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही सर्वनाश नहीं कर देंगे बल्कि उसके सहयोगी समस्त क्षत्रिय वंशों का 21 बार संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहिन कर देंगे। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने अपने इस संकल्प को पूरा भी किया।


    पुराणों में उल्लेख है कि भगवान परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया। कहा जाता है की महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया था तब जाकर किसी तरह क्षत्रियों का विनाश भूलोक पर रुका। तत्पश्चात भगवान परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया।
अपने शिष्य भीष्म को नहीं कर सके पराजित
महाभारत के अनुसार महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म ने भगवान परशुराम से ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या प्राप्त की थी। एक बार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की पुत्रियों अंबा, अंबिका और बालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे।


   तब अंबा ने भीष्म को बताया कि वह मन ही मन किसी और का अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया, लेकिन हरण कर लिए जाने पर उसने अंबा को अस्वीकार कर दिया.. तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई।


   अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत।
बाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम से परशुराम भगवान से कोई विवाद नही हुआ था
गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस में वर्णन है कि भगवान श्रीराम ने सीता स्वयंवर में शिव धनुष उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। धनुष टूटने की आवाज सुनकर भगवान परशुराम भी वहां आ गए। अपने आराध्य शिव का धनुष टूटा हुआ देखकर वे बहुत क्रोधित हुए और वहां उनका श्रीराम व लक्ष्मण से विवाद भी हुआ।


    जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार सीता से विवाह के बाद जब श्रीराम पुन: अयोध्या लौट रहे थे। तब परशुराम वहां आए और उन्होंने श्रीराम से अपने धनुष पर बाण चढ़ाने के लिए कहा। श्रीराम ने बाण धनुष पर चढ़ा कर छोड़ दिया। यह देखकर परशुराम को भगवान श्रीराम के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया और वे वहां से चले गए।   


आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र                        
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