विवेकानंद के सामाजिक दृष्टिकोण : तत्कालीन प्रसंग में





स्वामी विवेकानंद के सम्पूर्ण जीवन के दो हिस्से हैं। एक नरेंद्र दत्त जिसने आधुनिक पश्चिम शैली में शिक्षा प्राप्त किया, दूसरा विवेकानंद जिसने स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य रूप में शिक्षा ग्रहण भारतीय अध्यात्म को समयोचित आवश्यकता के अनुरूप नवीन रूप में ढालकर प्रस्तुत किया। विवेकानंद ने भारतीय अध्यात्म और राष्ट्रभक्ति का समन्वय कर भावी पीढ़ी के लिए एक उद्दाम आदर्श को प्रस्तुत किया।


विवेकानंद के सम्पूर्ण जीवन को 4 काल खंडो में बाँट सकते हैं-



  1. जन्म से शिक्षा ग्रहण तक समय: नरेंद्र दत्त का जीवन : 12.01.1863-1884 ।

  2. नरेंद्र दत्त से विवेकानंद के रूप में बदलने का समय अर्थात रामकृष्ण परमहंस से शिक्षा ग्रहण कर उनसे शिक्षा ग्रहण और भ्रमण करने का कालखंड : 1893-1897।

  3. 3. शिकागो धर्म सभा में व्याख्यान और अमेरिका यूरोप में 4 वर्ष तक भ्रमण का काल : 1893-1897 ।

  4. भारत वापस आना, रामकृष्ण मिशन स्थापना और शेष जीवन। 1897-04/071902 ।


विवेकानंद के लेखन, भाषण आदि का बड़ा भाग जो आज प्रकाशित हैं वह तीसरे और चौथे खंड से ही सम्बंधित हैं| विवेकानंद के अध्यात्म और राष्ट्रजीवन या सामाजिक जीवन दोनों ही पर उनके पर्याप्त लेखन और भाषण उपलब्ध हैं।


जाति व्यवस्था एवं दलित संबंधी चिंतन


विवेकानंद ने जाति व्यवस्था के विभिन्न समस्याओं पर अपने समय में बहुत ही बेबाकी से अपने विचार को रखा हैं। भारत में वह जाति भेद या दलित जाति के निर्मिति को लेकर लिखते हैं – ‘हमारे अभिजात पूर्वज साधारण जनसमुदाय को दबाते थे अतः वे बेचारे असहाय हो गए। यहाँ तक कि वे अपने आपको मनुष्‍य मानना भूल गए|


  इसके साथ ही वह इनकी स्थिति मे सुधार को लेकर आधुनिक शिक्षित समाज में अवसादिता व्याप्त हैं। उसे लेकर उसी समय वह संकेत करते हैं- “यदि कोई व्यक्ति निर्धन लोगों के प्रति सहानुभूति का शब्द कहता हैं, तो मै प्राय: देखता हूँ कि आधुनिक शिक्षा की डिंग हांकने के बाबजूद हमारे देश के लोग इनके उन्नयन के दायित्व से पीछे हट जाते हैं।


     इसके साथ ही वर्तमान में विभिन जातियों, जो जातिय श्रेष्ठता का जो दंभ भरा जाता हैं , विवेकानंद ने इसे भी एक समस्या के रूप में देखा हैं। इस वंशानुगत श्रेष्ठता या आनुवंशिक संकमण (Hereditary Transmission) के आंग्ल-भारतीय या पश्चिमी विचार को पूरी तरह नकार देते हैं। वह यहाँ तक कहते हैं “हे ब्राह्मणो” यदि वंशानुक्रम के आधार पर चांडालों की अपेक्षा ब्राह्मण आसानी से विद्याभ्यास कर सकते हैं, तो उनकी शिक्षा पर धन का व्यय करो। वरन् विवेकानंद गरीब-अमीर, कमजोर-मजबूत जाँत-पाँत, स्त्री -पुरुष और बालक बालिका आदि सभी तरह के भेद को न मानकर सब में एक ही सर्वव्यापी आत्मा के होने के कारण सबको बराबर मानकर ज्ञान दो। आओ हम प्रत्येक व्यक्ति में घोषित करें- ‘ उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ’।


    वस्तुतः वेदांत के अनुसार सभी मनुष्य समान है तो उनके साथ इस प्रकार के आनुवंशिक आधार पर भेद करना अनुचित है। सीधे अर्थ में विवेकानंद अपने आपको इस तरह के समाज- सुधारक नहीं मानते हैं वह कहते है “तुम चाहे जिस जाति या समाज के क्‍यों न हो, उससे कुछ बनता-बिगडता नहीं” पर तुम किसी और जाति वाले को घृणा की दृष्टि से क्यों देखो?


स्त्री संबंधी चिंतन


विवेकानंद ने उस दौर के विभिन आंदोलन एवं आवश्यकताओं पर ध्यान दिलाया हैं उसी में से एक हैं स्त्री सम्बन्धी चिंतन। उस दौर के स्त्री सम्बन्धी आंदोलन पर विचार करते हुए कहते हैं " गत शताब्दी में सुधर के लिए जो भी आंदोलन हुए हिअ उनमे से अधिकांश केवल ऊपरी दिखावा मात्र रहे हैं उनमे से प्रत्येक ने केवल प्रथम दो वर्गों से ही संभंद रखा हैं, शेष दो से नहीं।


    विधवा-विवाह के प्रश्न से 70 प्रतिशत भारतीय स्त्रियों का कोई संभंद नहीं हैं।और देखो मेरी बाँट पर ध्यान दो, इस प्रकार के सब आंदोलन का संबंद भारत के केवल उच्च वर्णो से ही रहा हैं, इन लोगों ने अपने भारत घर को साफ करने एवं अंग्रेजो के सम्मुख अपने को सुंदर दिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।


    यह तो सुधार नहीं कहा जा सकता। वास्तव में यह उस दौर का एक वस्तुगत सत्य था कि तब के विभिन जातियों और समाजों में विधवा विवाह प्रचलित था विधवा विहाह समस्या विशेषकर ब्राह्मणों और अन्य सवर्णों की थी। कालांतर में जब इसको लेकर कानून बना तो जिन जातियों में विधवा विवाह स्वाभाविक सहज कार्य था, उस पर नकारात्मक प्रभाव पड़।| इस तथय पर वर्तमान में विभिन्न स्त्री विमर्शकारो ने जैसे: राधा कुमार ने अपने पुस्तक ‘स्त्री संघर्ष का इतिहास’ में इसे स्पष्ट किया हैं।


वास्तव में विवेकानंद अखिल भारतीय स्त्री समाज के समस्याओ पर विचार कर रहे थे। इस क्रम में वह शिक्षा पर अत्यधिक बल देते हैं। वास्तव में विवेकानंद सुधार की प्रक्रिया में अंतर् करते हैं। वे मनुष्य के स्वाभाविक