सत्यम शिवम और सुंदरम का रहस्य 

सत्यम शिवम और सुंदरम का रहस्य 
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सत्यम शिवम और सुंदरम के बारे में सभी ने सुना और पढ़ा होगा लेकिन अधिकतर लोग इसका अर्थ या इसका भावार्थ नहीं जानते होंगे। वे सत्य का अर्थ ईश्वर शिवम का अर्थ भगवान शिव से और सुंदरम का अर्थ कला आदि सुंदरता से लगाते होंगे लेकिन अब हम आपको बताएंगे कि आखिर में हिन्दू धर्म और दर्शन का इस बारे में मत क्या है।


हालांकि वेद उपनिषद और पुराणों में इस संबंध में अलग अलग मत मिलते हैं लेकिन सभी उसके एक मूल अर्थ पर एकमत हैं। धर्म और दर्शन की धारणा इस संबंध में क्या  हो सकती है यह भी बहुत गहन गंभीर मामला है। दर्शन में भी विचारधाएं भिन्नभिन्न मिल जाएगी लेकिन आखिर सत्य क्या है इस पर सभी के मत भिन्न हो सकते हैं।


सत्यम👉 योग में यम का दूसरा अंग है सत्य। हिन्दू धर्म में ब्रह्म को ही सत्य माना गया है। जो ब्रह्म परमेश्वर को छोड़कर सबकुछ जाने का प्रयास करता है वह व्यक्ति जीवन पर्यन्त भ्रम में ही अपना जीवन गुजार देता है। यह ब्रह्म निराकार निर्विकार और निर्गुण है। उसे जानने का विकल्प है स्वयं को जानना। अर्थात आत्मा ही सत्य है जो अजर अमर निर्विकार और निर्गुण है। शरीर में रहकर वह खुद को जन्मा हुआ मानती है जो कि एक भ्रम है। इस भ्रम को जानना ही सत्य है।


सत ईश्वर एक ही है। कवि उसे इंद्र वरुण व अग्नि आदि भिन्न नामों से पुकारते हैं।ऋग्वेद
जो सर्वप्रथम ईश्वर को इहलोक और परलोक में अलगअलग रूपों में देखता है वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात उसे बारम्बार जन्ममरण के चक्र में फँसना पड़ता है।कठोपनिषद।।10।।


सत्य का अलौकिक अर्थ👉 सत्य को समझना मुश्किल है लेकिन उनके लिए नहीं जो धर्म और दर्शन को भलिभांति जानते हैं। सत्य का आमतौर पर अर्थ माना जाता है झूठ न बोलना लेकिन यह सही नहीं है। सत् और तत् धातु से मिलकर बना है सत्य जिसका अर्थ होता है यह और वह अर्थात यह भी और वह भी क्योंकि सत्य पूर्ण रूप से एकतरफा नहीं होता। परमात्मा से परिपूर्ण यह जगत आत्माओं का जाल है।
 
जीवन संसार और मन यह सभी विरोधाभासी है। इसी विरोधाभास में ही छुपा है वह जो स्थितप्रज्ञ आत्मा और ईश्वर है। सत्य को समझने के लिए एक तार्किक और बोधपूर्ण दोनों ही बुद्धि की आवश्यकता होती है। तार्किक‍ बुद्धि आती है भ्रम और द्वंद्व के मिटने से। भ्रम और द्वंद्व मिटता है मन वचन और कर्म से एक समान रहने से। 
 
शास्त्रों में आत्मा परमात्मा प्रेम और धर्म को सत्य माना गया है। सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं। सत्य के साथ रहने से मन हल्का और प्रसन्न चित्त रहता है। मन के हल्का और प्रसंन्न चित्त रहने से शरीर स्वस्थ और निरोगी रहता है। सत्य की उपयोगिता और क्षमता को बहुत कम ही लोग समझ पाते हैं। सत्य बोलने से व्यक्ति को सद्गति मिलती है। गति का अर्थ सभी जानते हैं।


‘सत चित आनन्द’👉 सत् अर्थात मूल कण या तत्व चित्त अर्थात आत्मा और आनंद अर्थात प्रकृति और आत्मा के मिलन से उत्पन्न अनुभूति और इसके विपरित शुद्ध आत्म अनुभव करना। परामात्मा और आत्मा का होना ही सत्य है बाकी सभी उसी के होने से है। आत्मा सत सत्य चित चित्त की एकाग्रता से और आनन्द परमानन्द की झलक मात्र को अनुभव रूप महसूस करने लगती है। यानी आत्मा के सत्य में चित्त के लीन या लय हो जाने पर बनी आनन्द की स्थिति ही सच्चिदानन्द स्थिति होती है।
 
सत्य का लौकिक अर्थ👉 सत्य को जानना कठिन है। ईश्वर ही सत्य है। सत्य बोलना भी सत्य है। सत्य बातों का समर्थन करना भी सत्य है। सत्य समझना सुनना और सत्य आचरण करना कठिन जरूर है लेकिन अभ्यास से यह सरल हो जाता है। जो भी दिखाई दे रहा है वह सत्य नहीं है लेकिन उसे समझना सत्य है अर्थात जोजो असत्य है उसे जान लेना ही सत्य है। असत्य को जानकर ही व्यक्ति सत्य की सच्ची राह पर आ जाता है।
 
जब व्यक्ति सत्य की राह से दूर रहता है तो वह अपने जीवन में संकट खड़े कर लेता है। असत्यभाषी व्यक्ति के मन में भ्रम और द्वंद्व रहता है जिसके कारण मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। मानसिक रोगों का शरीर पर घातक असर पड़ता है। ऐसे में सत्य को समझने के लिए एक तार्किक बुद्धि की आवश्यकता होती है। तार्किक‍ बुद्धि आती है भ्रम और द्वंद्व के मिटने से। भ्रम और द्वंद्व मिटता है मन वचन और कर्म से एक समान रहने से।


सत्य का आमतौर पर अर्थ माना जाता है झूठ न बोलना लेकिन सत् और तत् धातु से मिलकर बना है सत्य जिसका अर्थ होता है यह और वह अर्थात यह भी और वह भी क्योंकि सत्य पूर्ण रूप से एकतरफा नहीं होता। रस्सी को देखकर सर्प मान लेना सत्य नहीं है किंतु उसे देखकर जो प्रतीति और भय उत्पन हुआ वह सत्य है। अर्थात रस्सी सर्प नहीं है लेकिन भय का होना सत्य है। दरअसल हमने कोई झूठ नहीं देखा लेकिन हम गफलत में एक झूठ को सत्य मान बैठे और उससे हमने स्वयं को रोगग्रस्त कर लिया।
 
तो सत्य को समझने के लिए जरूरी है तार्किक बुद्धि सत्य वचन बोलना और होशोहवास में जीना। जीवन के दुख और सुख सत्य नहीं है लेकिन उनकी प्रतीति होना सत्य है। उनकी प्रतीति अर्थात अनुभव भी तभी तक होता है जब तक कि आप दुख और सुख को सत्य मानकर जी रहे हैं।
 
सत्य के लाभ👉 सत्य बोलने और हमेशा सत्य आचरण करते रहने से व्यक्ति का आत्मबल बढ़ता है। मन स्वस्थ और शक्तिशाली महसूस करता है। डिप्रेशन और टेंडन भरे जीवन से मुक्ति मिलती है। शरीर में किसी भी प्रकार के रोग से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। सुख और दुख में व्यक्ति सम भाव रहकर निश्चिंत और खुशहाल जीवन को आमंत्रित कर लेता है। सभी तरह के रोग और शोक का निदान होता है।
 
शिवम👉  शिवम का संबंध अक्सर लोग भगवान शंकर से जोड़ देते हैं जबकि भगवान शंकर अलग हैं और शिव अलग। शिव निराकार निर्गुण और अमूर्त सत्य है। निश्चित ही माता पार्वती के पति भी ध्यानी होकर उस परम सत्य में लीन होने के कारण शिव स्वरूप ही है लेकिन शिव नहीं।


शिव का अर्थ है शुभ। अर्थात सत्य होगा तो उससे जुड़ा शुभ भी होगा अन्यथा सत्य हो नहीं सकता। वह सत्य ही शुभ अर्थात भलिभांति अच्छा है। सर्वशक्तिमान आत्मा ही शिवम है। दो भोओं के बीच आत्मा लिंगरूप में विद्यमान है। 


शिवम👉  शिवम का संबंध अक्सर लोग भगवान शंकर से जोड़ देते हैं जबकि भगवान शंकर अलग हैं और शिव अलग। शिव निराकार निर्गुण और अमूर्त सत्य है। निश्चित ही माता पार्वती के पति भी ध्यानी होकर उस परम सत्य में लीन होने के कारण शिव स्वरूप ही है लेकिन शिव नहीं।


शिव का अर्थ है शुभ। अर्थात सत्य होगा तो उससे जुड़ा शुभ भी होगा अन्यथा सत्य हो नहीं सकता। वह सत्य ही शुभ अर्थात भलिभांति अच्छा है। सर्वशक्तिमान आत्मा ही शिवम है। दो भोओं के बीच आत्मा लिंगरूप में विद्यमान है। 


सुंदरम्   यह संपूर्ण प्रकृति सुंदरम कही गई है। इस दिखाई देने वाले जगत को प्रकृति का रूप कहा गया है। प्रकृति हमारे स्वभाव और गुण को प्रकट करती है। पंच कोष वाली यह प्रकृति आठ तत्वों में विभाजित है।


त्रिगुणी प्रकृति👉 परम तत्व से प्रकृति में तीन गुणों की उत्पत्ति हुई सत्व रज और तम। ये गुण सूक्ष्म तथा अतिंद्रिय हैं इसलिए इनका प्रत्यक्ष नहीं होता।


 इन तीन गुणों के भी गुण हैं प्रकाशत्व चलत्व लघुत्व गुरुत्व आदि इन गुणों के भी गुण हैं अत स्पष्ट है कि यह गुण द्रव्यरूप हैं।   द्रव्य अर्थात पदार्थ। पदार्थ अर्थात जो दिखाई दे रहा है और जिसे किसी भी प्रकार के सूक्ष्म यंत्र से देखा जा सकता है महसूस किया जा सकता है या अनुभूत किया जा सकता है। ये ब्रहांड या प्रकृति के निर्माणक तत्व हैं।
 
प्रकृति से ही महत् उत्पन्न हुआ जिसमें उक्त गुणों की साम्यता और प्रधानता थी। सत्व शांत और स्थिर है। रज क्रियाशील है और तम विस्फोटक है। उस एक परमतत्व के प्रकृति तत्व में ही उक्त तीनों के टकराव से सृष्टि होती गई। 


 सर्वप्रथम महत् उत्पन्न हुआ जिसे बुद्धि कहते हैं। बुद्धि प्रकृति का अचेतन या सूक्ष्म तत्व है।  महत् या बुद्ध‍ि से अहंकार। अहंकार के भी कई उप भाग है। यह व्यक्ति का तत्व है।  व्यक्ति अर्थात जो व्यक्त हो रहा है सत्व रज और तम में। सत्व से मनस पाँच इंद्रियाँ पाँच कार्मेंद्रियाँ जन्मीं। तम से पंचतन्मात्रा पंचमहाभूत आकाश अग्न‍ि वायु जल और ग्रहनक्षत्र जन्मे।   
 
पंचकोष👉  जड़ प्राण मन विज्ञान और आनंद। इस ही अन्नमय प्राणमय मनोमय विज्ञानमय और आनंदमय कहते हैं। दरअसल आप एक शरीर में रहते हैं जो कि जड़ जगत का हिस्सा है। आपके शरीर के भीतर प्राणमय अर्थात प्राण है जो कि वायुतत्व से भरा है। यह तत्व आपके जिंदा रहने को संचालित करता है। यदि आप देखे और सुने गए अनुसार संचालित होते हैं तो आपम प्राणों में जीते हैं अर्थात आप एक प्राणी से ज्यादा कुछ नहीं।


मनोमय का अर्थ आपके शरीर में प्राण के अलावा मन भी है जिसे चित्त कहते हैं। पांचों इंद्रियों का जिस पर प्रभाव पड़ता है और समझने की क्षमता भी रखता है। इस मन के अलावा आपके ‍भीतर विज्ञानमन अर्थात एक ऐसी बुद्धि भी है जो विश्लेषण और विभाजन करना जानती है।


 इसके गहरे होने से मन का लोप हो जाता है और व्यक्ति बोध में जीता है। इस बोध के गहरे होने जाने पर ही व्यक्ति खुद के स्वरूप अर्थात आनंदमय स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। अर्थात जो आत्मा पांचों इंद्रियों के बगैर खुद के होने के भलिभांति जानती है। 
 
आठ तत्व👉 अनंतमहत्अंधकारआकाशवायुअग्निजलपृथ्वी। अनंत जिसे आत्मा कहते हैं। पृथ्वी जल वायु अग्नि आकाश मन बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। 


अत हम एक सुंदर प्रकृति और जगत के घेरे से घिरे हुए हैं। इस घेरे से अलग होकर जो व्यक्ति खुद को प्राप्त कर लेता है वही सत्य को प्राप्त कर लेता है। संसार में तीन ही तत्व है सत्य शिव और सुंदरम। ईश्वर आत्मा औ