मुझे जाना है बुद्ध के देश

मीठे-रसीले संतरे की खुशबू से पूरा कक्ष महक रहा था। वहां एक से एक उम्दा सजीले-सुस्वाद फल सजे थे, सब बारी-बारी लाए गए थे। जब भी किसी ताजे फल से भरा कोई नया फलदान आता, कमरे की हवा में एक नई चाहत घुल जाती, कुछ देर खूब इठलाती और फिर सारे फल मिलकर खुशबुओं की नई दुनिया गढ़ लेते। फलों ने पूरे कक्ष को खुशहाल कर रखा था, लेकिन वहीं बैठे बौद्ध भिक्षु के चेहरे पर खुशी का एक कतरा न था। सारे फल उन्हीं के लिए परोसे जा रहे थे, लेकिन वह निर्विकार बैठे थे। दो दिन बीत गए थे, मुंह से कुछ भी नहीं लगाया, न एक घूंट, न एक कौर।



बाहर पूरे नगर में चर्चा थी कि राजा के विरुद्ध भिक्षु ने सत्याग्रह ठान लिया है, अन्न-जल त्याग दिया है। चीन के तुरफान का राजा जू वेंतई भी बहुत हठी था, उसने दो दिन पहले ही उस भिक्षु से आग्रह किया था, 'मैं अपने राज्य में आपको पाकर धन्य हूं। मेरे राज्य के लोग बड़े अज्ञानी हैं, आप यहीं रहिए और सबको शिक्षित कीजिए। मेरे आश्रय में आपको कोई तकलीफ नहीं होगी।' भिक्षु ने निवेदन किया, 'मेरा ज्ञान अभी अधूरा है, मैं ज्ञान की खोज में निकला हूं। मुझे तथागत बुद्ध के देश जाना है। मैं अभी नहीं रुक सकूंगा। कृपया, मुझे मत रोकिए।'



भिक्षु की गुहार पर राजा कान देने को तैयार न था। उसने फरमान सुना दिया, 'मैं आपको राजपुरोहित बनाऊंगा, आप कहीं नहीं जाएंगे।' भिक्षु तब भी टस से मस न हुआ, तो राजा ने सैनिकों की ओर इशारा किया और कहा, 'आप नहीं मान रहे, तो मुझे रोकने के तरीके आते हैं।' 
राजा का फरमान था, भिक्षु की हर इच्छा पूरी करो, लेकिन कहीं जाने मत दो। जल्दी ही राजा को यह भी खबर लग गई कि भिक्षु ने खाना-पीना छोड़ दिया है। नतीजतन एक से एक शानदार फल भिक्षु को परोसे जा रहे थे। राजा ने सुन रखा था कि विद्वान चटोरे होते हैं, भूख बर्दाश्त नहीं करते, तो उसकी पूरी कोशिश थी कि किसी तरह भिक्षु की भूख जग जाए, लेकिन नाकामी हाथ लग रही थी।



भिक्षु के सत्याग्रह का तीसरा दिन शुरू हो गया। वह लगातार जमीन पर बैठे रहते। राजा ने भिक्षु के मनुहार में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। कमरे में बहुत गद्देदार बिस्तर लगा दिया गया। राजकीय सेवकों ने प्यार से निवेदन किया कि कुछ खाकर आराम कीजिए। कितना बड़ा पद मिल रहा है, लाखों विद्वान इसके लिए पूरी जिंदगी खपा देते हैं और आप ठुकरा रहे हैं? 



फिर शुरू हो गई तरह-तरह के पकवानों की आमद। शाही रसोई से भांति-भांति के व्यंजन सज-धज से परोसे जाने लगे। कभी घी की खुशबू, कभी मीठी, कभी तीखी, कभी खट्टी, कभी नमकीन की माया भरमाने लगती, कभी मसालों की तेज गंध उमड़ आती।


एक से एक दुर्लभ पकवानों से कमरा अटा पड़ा था। कमरे में खुशबुओं से मतवाली हवा मचल रही थी, पर भिक्षु के मुखमंडल से मानो लोभ-लालसा का नाता ही टूट गया था। वह उस कमरे से दूर कहीं रेगिस्तान में अपनी यादों के साथ थके पड़े थे। एक ओर वह गिरे थे और दूसरी ओर उनका घोड़ा, दोनों तब पांच दिन से भूखे-प्यासे रेगिस्तान में भटक रहे थे। और अभी इस कमरे में तो भूख-प्यास की उम्र महज दो दिन हुई थी। भिक्षु ने अपने मन को उस कमरे से बाहर भेज रखा था। कभी याद करते कि वह बड़े राजा से छिपकर कैसे भागे थे। रात भर चलना और दिन में छिपना। अब इस हठी राजा के जाल में फंस गए। क्या बुद्ध के देश जाने का सपना साकार हो सकेगा? उन्होंने तय कर लिया, मर जाएंगे, लेकिन झुकेंगे नहीं। यह कभी ध्यान नहीं आया कि ऐसी आरामदेह जिंदगी छोड़ आगे वीरान राहों और पराए मुल्कों की खाक क्यों छानी जाए? 



तीसरा दिन भी ढल गया। मन दृढ़ रहा, पर जब कमजोरी से शरीर निढाल हुआ, तो भिक्षु ने उसे जमीन पर लेट जाने दिया। लेटते ही खबर फैल गई कि भिक्षु की जान चली जाएगी। राजा के हठ ने घुटने टेक दिए, वह दौड़ता आया और बोला, 'आपकी जान कीमती है, आप कुछ खा लीजिए, मैं आपको रोकूंगा नहीं। लेकिन जब आप लौटना, तब यहीं तीन साल रुक जाना।' 



तो ऐसे छूटी भिक्षु ह्वेन त्सांग (602-664) की जान। वह भारत पहुंचे, यहां करीब 15 वर्ष रहे, लेकिन फिर किसी राजा के करीब जाने का खतरा मोल नहीं लिया। मठों में ही रहे। चीन लौटे, पर तुरफान नहीं गए। चीन के बड़े राज्य गए, लेकिन वहां भी मंत्रिपद ठुकरा दिया। मठों में ही रहकर भारत के बारे में लिखते रहे। आज दुनिया की निगाह में वही प्राचीन भारत, कन्नौज, पाटलिपुत्र और नालंदा हैं, जिन्हें ह्वेन त्सांग देखकर गए थे। वह तुरफान राज्य में राजपुरोहित होकर ठहर जाते, तो दुनिया किसे कहती 'तीर्थयात्रियों का राजकुमार'।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय