पिछले चार दिनों के भीतर रांची और हैदराबाद में हुए दो जघन्य सामूहिक बलात्कार कांड बता रहे हैं कि देश में लड़कियां अभी भी सुरक्षित नहीं हैं। ये घटनाएं किसी दूर-दराज के इलाके की नहीं हैं, ये दो बडे़ प्रदेशों की राजधानी की हैं। रांची में एक छात्रा का अपहरण करके उसे ले जाया गया और उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, जबकि हैदराबाद में पशु चिकित्सक की स्कूटी का टायर पंक्चर हो जाने के बाद उसे घर तक पहुंचने के लिए मदद लेनी पड़ी और मदद मिलने की बजाय वह ऐसे लोगों के चंगुल में फंस गई, जिन्होंने न सिर्फ बलात्कार किया, बल्कि उसकी निर्मम हत्या भी कर दी। दोनों ही घटनाएं सीधे तौर पर बताती हैं कि निर्भया कांड के बाद जो भी कदम उठाए गए, वे ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए नाकाफी साबित हुए हैं।
सात साल पहले जब दिल्ली में निर्भया के साथ घृणित सामूहिक बलात्कार हुुआ था, तब पूरा देश उठ खड़ा हुआ था। देश भर के युवा सड़कों पर उतर आए थे। सरकार, समाज के एक बडे़ तबके और सभी राजनीतिक दलों ने यह संकल्प लिया था कि अब कोई और निर्भया नहीं होगी। उस आंदोलन और उन संकल्पों से एकबारगी लगने लगा था कि अब सूरत बदलेगी ही, देश में महिलाएं पहले से सुरक्षित होंगी। यह उस समय का आवेग था, जो सरकार पर कुछ करने का दबाव भी बना रहा था और हमें कई तरह के आश्वासन भी दे रहा था।
निर्भया कांड के बाद जो बदलाव हुए, उसमें मुख्य था बलात्कार से जुडे़ कानूनों में बदलाव। बदलाव सुझाने के लिए जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई। समिति ने इसके लिए न सिर्फ भारतीय दंड संहिता में बदलाव के सिफारिशें कीं, बल्कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी बदलाव के कई सुझाव दिए। उस समय जो आंदोलन चल रहा था, उसकी एक प्रमुख मांग थी कि बलात्कार के दोषियों को मृत्युदंड दिया जाए। हालांकि इसे लेकर कई मतभेद थे, लेकिन अंत में इसकी सिफारिश भी की गई।
अगले तीन महीनों के अंदर ही कानून में इस बदलाव का अधिनियम भी जारी हो गया। कानून में इस बदलाव के पीछे कडे़ दंड का सिद्धांत था। सोच यही थी कि अगर बलात्कारियों के बच निकलने के रास्ते बंद करने के साथ ही उनको दिया जाने वाला दंड बाकी समाज के लिए एक कठोर सबक का काम करेगा और यह अपराधी मानसिकता के लोगों को ऐसे अपराध करने से रोकेगा। लेकिन इसके बावजूद अगर ऐसी वारदात नहीं रुक रही हैं, तो यह सूचना जरूरी है कि इस दिशा में और क्या किया जाए।
समाजशास्त्र मानता है कि अपराधी के बच निकलने के रास्ते बंद करना और कड़े दंड जरूरी हैं, पर ये अपराध के खत्म होने की गारंटी नहीं हो सकते। इनके साथ सबसे जरूरी है उन स्थितियों को खत्म करना, जो ऐसे अपराधों का कारण बनती हैं। बलात्कार जैसे अपराध कुंठित मानसिकता के लोग करते हैं, लेकिन ऐसी कुंठाएं कई बार महिलाओं के प्रति हमारी सामाजिक सोच से उपजती हैं। महिलाओं को सिर्फ कानूनों में ही नहीं, सामाजिक धारणा के स्तर पर बराबरी का दर्जा देकर और उनकी सार्वजनिक सक्रियता बढ़ाकर ही इस मानसिकता को खत्म किया जा सकता है। इससे हम ऐसा समाज भी तैयार करेंगे, जो कुंठित मानसिकता वालों को बहिष्कृत कर सकेगा।