विश्व मे ऐसा कौनसा देश हैं, जिसके राष्ट्रध्वज पर हिन्दू मंदिर हैं...

एक समय, पूरे विश्व में स्थापत्य कला में पारंगत और विशेषज्ञ माने जाने वाले हम लोग, आज पाश्चात्य स्थापत्य कला की अंधी नकल कर रहे हैं.... इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा ?



   एक प्रश्न मैं कई बार अलग अलग मंचो से पूछता हूँ, और दुर्भाग्य से लगभग नब्बे प्रतिशत इसका उत्तर नहीं मिलता हैं, या फिर गलत मिलता हैं. प्रश्न हैं – ऐसा कौनसा देश हैं, जिसके राष्ट्रध्वज पर हिन्दू मंदिर हैं...? 


'विश्व का सबसे बड़ा पूजा स्थल कौनसा हैं'..? ऐसा प्रश्न किया, की उत्तर आते हैं – वेटिकन सिटी का चर्च या बेसिलिका, स्पेन का चर्च, मक्का या फिर मस्कत की नई मस्जिद.... आदि. ये सारे उत्तर गलत हैं. विश्व का सबसे बड़ा पूजा स्थल या प्रार्थना स्थल यह एक हिन्दू मंदिर हैं. और मजे की बात, यह हिन्दू मंदिर भारत में नही हैं. भारत के बाहर हैं. 


कंबोडिया के उत्तर – पश्चिम सीमा पर 'अंगकोर वाट' यह मंदिर, इन दोनों प्रश्नोंका उत्तर हैं. यह विश्व का सबसे बड़ा पूजा स्थल हैं. दक्षिण – पूर्व आशिया में 'वाट' का अर्थ होता हैं, मंदिर. अंगकोर वाट इस मंदिर की एक दीवार लगभग साढ़े तीन किलोमीटर लंबी हैं. इससे अंदाज लगाया जा सकता हैं, की यह मंदिर कितने विशाल भूभाग पर फैला होगा. मेरु पर्वत की प्रतिकृति के रूप में यह मंदिर बनाया गया हैं. इस मंदिर का कुल परिसर चार सौ वर्ग मीटर हैं. 


इस हिन्दू मंदिर को कंबोडिया ने अपने राष्ट्रध्वज पर स्थान दिया हैं. इसी से इस मंदिर का महत्व पता चलता हैं. इस मंदिर पर अपना हक जताने के लिए कुछ वर्ष पहले कंबोडिया और थायलैंड में घमासान युध्द छिड्ने की नौबत आई थी. दोनों देशों की सेनाएँ अपनी अपनी सीमा पर खड़ी हो गई थी. किन्तु यह मंदिर 'युनेस्को' के 'विश्व विरासत' (World Heritage Site) की सूची में हैं. इसलिए युनेस्को तथा विश्व के अन्य बड़े देशों ने बीच-बचाव किया, और युध्द टला. 


विश्व के पर्यटकों के दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थान हैं. प्रतिवर्ष २६ लाख से भी ज्यादा पर्यटक, इस मंदिर को देखने के लिए, दुनिया के कोने कोने से आते हैं. अर्थात सात हजार से भी ज्यादा पर्यटक प्रतिदिन. सन ११०० के प्रारंभ से इस मंदिर के निर्माण का प्रारंभ हुआ और बारहवी शताब्दी के मध्य में यह निर्माण कार्य पूर्ण हुआ. उस समय यह प्रदेश 'कंबोज प्रांत' के नाम से जाना जाता था. अंगकोर को पुराना नाम 'यशोधरपुर' था. लेकिन इन विशाल मंदिरों के कारण यह 'अंगकोर' कहलाने लगा. जावा, सुमात्रा, मलाय, सुवर्णद्वीप, सिंहपुर... इस पूरे क्षेत्र पर हिन्दू संस्कृति का प्रभाव था. कंबोज के तत्कालीन राजा सूर्यवर्मा (द्वितीय) ने इस विष्णु मंदिर का निर्माण किया हैं. 


मूलतः यह मात्र एक मंदिर नही, अपितु मंदिरों का समूह हैं. संस्कृत में अंगकोर का अर्थ होता हैं, 'मंदिरों की नगरी'. इस नगरी की रचना अत्यंत वैज्ञानिक पध्दति से की गई हैं. मंदिरों का यह परिसर चौकोनाकार खंदकों के कारण सुरक्षित हैं. इस खंदक पर एक पुल हैं, जिसे पार कर के मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं. प्रवेशद्वार अत्यंत भव्य – दिव्य आकार में हैं. इसकी चौड़ाई ही एक हजार फीट की हैं. इस मंदिर की दीवारों पर रामायण के प्रसंग उकेरे गए हैं. समुद्र मंथन का अद्भुत दृश्य अनेक मूर्तियों के माध्यम से साकार हुआ हैं. 


संपूर्ण मंदिर परिसर की रचना और मंदिर का स्थापत्य (architecture) शास्त्र देखकर हम दंग रह जाते हैं. साधारण ९०० से १००० वर्ष पूर्व, इतना सटीक और निर्दोष निर्माण करना, उस समय के हिन्दू स्थापत्यकारों को कैसे संभाव हुआ होगा...? इस मंदिर की केंद्रीय संरचना देखते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता हैं की, मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ करने के पहले, इस मंदिर परिसर के नक्शे बनाएं गए होंगे. उसमे समरुपता (सिमेट्री) का ध्यान रखा गया होगा. उसके बाद ही निर्माण कार्य का प्रारंभ किया होगा. 


इजिप्त और मेक्सिको के स्टेप पिरामिड जैसे ही ये मंदिर भी सीढ़ियों से ऊपर उठाते बनाएं गए हैं. इन मंदिरों के निर्माण कार्य पर पूर्णतः चोल और गुप्त कालीन स्थापत्य शास्त्र का प्रभाव स्पष्ट दिखता हैं. विशेष रूप से रामायण कालीन प्रसंग जिस नजाकत से दिखाएं गए हैं, उनको देखकर मन आश्चर्य से दंग रह जाता हैं.    


दुर्भाग्य से, जिस देश के राष्ट्रध्वज में विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर हैं, उस देश से भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक संबंध किस प्रकार के हैं...? बिलकुल न के बराबर. कंबोडिया का यह अंगकोर वाट मंदिर देखने के लिए विश्व के हर कोने से पर्यटक आते हैं. किन्तु उनमे भारतीय पर्यटकोंकी संख्या बहुत कम होती हैं. हमारे शाला में पढ़ने वाले विद्यार्थी को फ्रांस, जर्मनी, इटली, इंग्लंड आदि देशों के राजधानियों की जानकारी तो होती हैं, अमेरिका के विभिन्न राज्यों की राजधानियां भी उसे मालूम होती हैं. लेकिन कंबोडिया की राजधानी, सौ में से नब्बे विद्यार्थियों के जानकारी में नहीं होती. 


मूलभूत प्रश्न यह हैं की भारतीय (या उस समय के अनुसार हिन्दू) स्थापत्यशास्त्र का यह कमाल, जो भारत के बाहर दिखाई देता हैं, वह कितना पुराना हैं ? स्थापत्यशास्त्र में हम भारतीय कितने समय से प्रगत थे...? भारत के अनेक मंदिर, विदेशी, खास कर मुस्लिम आक्रांताओं ने नष्ट किए. इस कारण दो – तीन हजार वर्ष पूर्व की स्थापत्य कला के नमूने, आज मिलना और दिखना दुर्लभ हैं. लेकिन उस कला के अंश कही न कही आगे की पीढ़ी में आएं हैं. इसलिए हजार – डेढ़ हजार वर्ष पूर्व के निर्मित मंदिरों में भी वही स्थापत्य कला के अद्भुत चमत्कार दिखाई देते हैं. 


दक्षिण भारत का विजय नगर साम्राज्य, पंधरवी और सोलावी शताब्दी में एक मजबूत और शक्तिशाली साम्राज्य था. कर्नाटक में स्थित 'हम्पी' यह इसकी राजधानी थी. इस साम्राज्य को तीन मुस्लिम पातशाहियों ने मिलकर परास्त किया. उस के बाद, तीनों ने मिलकर इस समृध्द हिन्दू साम्राज्य को जी भर के लूटा. अनेक मंदिरों को तोड़ा – फोड़ा और नष्ट किया. लेकिन आज भी जो खंडहर बचे हैं, उनसे उस समय की स्थापत्य कला के अद्भुत नमूने, उस समय की अति प्रगत स्थापत्य कला, हमे देखने मिलती हैं. हम्पी के एक मंदिर के प्रत्येक खंबे से संगीत के सा रे ग म प . . . ऐसे अलग अलग सप्तसूर निकलते हैं. यह कैसे किया होगा, इसकी जानकारी कही भी नहीं मिलती हैं. अगर कही लिखकर भी रखा होगा, तो वह सब साहित्य आक्रांताओं ने नष्ट किया होगा. अंग्रेजों ने इस स्थापत्य के चमत्कार का रहस्य ढूँढने के लिए उस संगीतमय सुरों के एक खंबे को काटा अर्थात उसका 'क्रॉस सेक्शन' लिया. लेकिन वह खंबा अंदर से पूरा ठोस निकला. अब ऐसे ठोस, एक जैसे दिखने वाले खंबों से अलग अलग सूर कैसे निकलते होंगे...? अंग्रेज़ भी आश्चर्यचकित हो गए. पूरे विश्व में, भारत को छोड़, अन्यत्र कही भी इस प्रकार की स्थापत्य कला देखने नहीं मिलती हैं. 


मंदिरों की स्थापत्य कला और उसमे समाविष्टित विज्ञान के विषय में अनेक लेखकों ने लिखा हैं. मराठी में इस विषय के विशेषज्ञ, डॉ गो. बं. देगलूरकर ने चार पुस्तके लिखी हैं, जो लोकप्रिय हैं. पुणे के मोरेश्वर कुंटे और उनकी पत्नी श्रीमति विजया कुंटे ने स्कूटर पर महाराष्ट्र का भ्रमण करते हुए पूरे महाराष्ट्र के अनेक उपेक्षित मंदिरों की 'स्थापत्य कला और वैज्ञानिक अधिष्ठान' इस विषय पर शोध कार्य किया हैं. 


ग्रीनविच यह पृथ्वी की मध्य रेखा हैं, ऐसा अंग्रेजों ने तय करने के अनेक वर्ष पूर्व भारतीयों ने पृथ्वी की देशांतर रेखाएं, अर्थात अक्षांश / रेखांश और मध्य रेखा की व्यवस्थित कल्पना की थी. यह मध्य रेखा, प्राचीन वत्सगुल्म (अर्थात आज का वाशिम, महाराष्ट्र) के मध्येश्वर मंदिर में स्थित भगवान शंकर के पिंडी से निकलते हुए आगे जाती हैं. यही रेखा उज्जैन के पास से निकलती हैं. प्राचीन खगोलशास्त्र में उज्जैन का बड़ा महत्व हैं. इसीलिए उज्जैन में वेधशाला का भी निर्माण किया गया हैं. कोल्हापुर में, अंबामाता देवी के मंदिर में, वर्ष के एक विशिष्ट दिवस के अवसर पर, सूर्य की किरने, सीधे मूर्ति के चेहरे पर पड़ती हैं. भारतीय स्थापत्य कला के पूर्णता का, या प्रवीणता का यह अनुपम उदाहरण हैं. 


उस समय, स्थापत्य कला में हम कितने प्रगत थे, इसकी कल्पना हम आज भी नहीं कर सकते. जिस समय कंबोडिया में विश्व के सबसे बड़े प्रार्थना स्थल, 'अंगकोर वाट' का निर्माण हो रहा था, उसी समय, चीन की राजधानी बीजिंग की नगर रचना (town planning) एक हिन्दू स्थापत्य शास्त्री कर रहा था. उसका नाम था – बलबाहु. आज के नेपाल के पाटन शहर का रहनेवाला. पाटन, तेरहवी शताब्दी में कांस्य और अन्य धातुओं की मूर्तियों के लिए प्रसिध्द था. इस शहर के कारागिरों की तैयार की हुई बुध्द की तथा अन्य हिन्दू देव – देवताओं की मूर्तियाँ तिब्बत और चीन में सबसे ज्यादा बिकती थी. तेरहवी शताब्दी के मध्य मे, चीनी राजा के आमंत्रण पर, पाटन से ८० कुशल कारीगर चीन में गए. उनका नेतृत्व कर रहा था, मात्र १७ वर्ष का बलबाहु. 


आगे चलकर, चीन में बलबाहु का आरेखन और निर्माण कौशल देखकर चीन के राजा ने उसे बीजिंग शहर के नगर रचना का काम दिया. बलबाहु ने वह सफलता पूर्वक पूरा किया. चीनी संस्कृति की प्रतीक कही जाने वाली, ढलान वाले, एक के नीचे एक छतों की परंपरा बलबाहु ने ही प्रारंभ की थी. चीन में उच्चारण के अपभ्रंश के कारण, बलबाहु को 'आर्निकों' नाम से जाना जाता हैं. चीन की सरकार ने, १ मई, २००२ मे, बलबाहु (आर्निको) के नगर रचना के योगदान के लिए, सम्मान स्वरूप, उसकी आदम क़द प्रतिमा, बीजिंग में स्थापित की हैं.