अनेक सद्गुणों की जननी है सहनशीलता-मीनू गोयल सदस्य प्रदेश कार्यकारिणी उज्वल भारत मिशन

 


सहनशीलता से ही सुधरेगा जीवन


    आज के मानव की सबसे बड़ी विडंबना सहनशक्ति में निरंतर आ रही गिरावट है। कहते हैं कि जो सहना जानता है , वही जीना जानता है। सहनशक्ति के अभाव में सद्गुणों का कोई महत्व नहीं रह जाता है। दोषपूर्ण सोच के कारण छोटी-छोटी बातों पर नियंत्रण खो देना आम बात हो गई है। इसी के परिणाम हैं कलह , तोड़फोड़ , तलाक , आत्महत्या आदि। भौतिकता की चकाचौंध आग में घी का काम कर रही है।


    जो व्यक्ति सच के कड़वे घूंट पीना जानता है , वही वास्तव में हर परिस्थिति में सरलता से जी सकता है। सहनशीलता के बिना आनंदमय जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अत: सुखी जीवन के लिए सहिष्णुता अर्थात् सहनशीलता बहुत आवश्यक है। समस्या तो यह है कि आज का व्यक्ति कहना बहुत चाहता है , लेकिन सुनना और सहना नहीं चाहता। अपनी हजार भूलें भी नजरअंदाज कर देता है , लेकिन दूसरे की एक भूल को भी सहन नहीं करता। जीवन-यापन के लिए सभी का सहयोग अपेक्षित है। समूह में अनुकूल और प्रतिकूल घटनाएं घटित होती रहती हैं। ऐसी परिस्थिति में शांत जीवन जीने के लिए सहनशील होना आवश्यक है।


    सहनशीलता से ऊर्जा जग जाती है और जीवन व्यवहार में उतर जाती है। फिर व्यक्ति समूह में रहकर भी सुखी जीवन जी सकता है। शठे शाठ्यं समाचरेत- इस सूत्र वाक्य को आज के जीवन का आदर्श समझा जाने लगा है। इसी का परिणाम है कि मैत्री की अपेक्षा शत्रुत्व की भावना तेजी से विस्तार पा रही है। सहना कायरता नहीं है , बल्कि मजबूती और ताकत है। इसके प्रभाव से कठिन से कठिन कार्य भी अविलंब संपन्न हो जाते हैं।


     सहनशीलता की साधना सरल नहीं है। बड़े-बड़े त्यागी और तपस्वी भी इसकी परीक्षा में धराशायी होते पाए गए हैं। महीने भर उपवास किया जा सकता है , पर किसी व्यक्ति के मुख से निकली सच बात और विपरीत स्थिति को सह पाना कठिन है। ऐसी त्याग तपस्या किस काम की , जो हमें सहिष्णु न बनाए। सहनशील व्यक्ति ही वास्तव में मानव कहलाने का अधिकारी है। ऐसे मानव की यश गाथाएं दिग-दिगंत तक गूंजती हैं।


    सहनशील व्यक्ति ही महान होता है। कहा भी है: क्षमा बड़न को चाहिए , छोटन को उत्पात। सहनशीलता की साधना के लिए विचारों में परिवर्तन की भी जरूरत होती है क्योंकि वैचारिक परिवर्तन ही व्यवहारिक परिवर्तन की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है। धार्मिक होना सहिष्णुता की ओर पहला कदम बढ़ाना है। असहिष्णु व्यक्ति कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता। जो जितना सहिष्णु होता है , वह उतना धार्मिक भी होगा , अन्यथा धर्म के प्रति उसका लगाव मात्र एक पाखंड और प्रदर्शन ही बनकर रह जाता है।


   गौर करें कि असहिष्णुता की प्रवृत्ति के कारण ही हमारी कोर्ट-कचहरियां भरी पड़ी रहती हैं। असहिष्णुता के रंग पर कभी भी धर्म का रंग नहीं चढ़ सकता। पत्थर का एक टुकड़ा जब हथौड़े-छेनी की लगातार चोटों को सहन करता है , तभी वह हम सबके लिए भगवान की पूज्य मूर्ति का स्वरूप पाता है। सहनशीलता हमारा रक्षा कवच है। सहन कर लेने की प्रवृति मन में ऐसी अटल शांति का संचरण करती है कि बाह्य प्रतिकूलताएं पराजित हुए बिना नहीं रहती और मानव देव तुल्य बन जाता है। 


   एक बार इसका प्रयोग करके देखें तो सही , जीवन की दिशा और दशा बदल जाएगी। ऐसे अद्भुत आनंद की प्राप्ति होगी , जिसकी कभी कल्पना भी न की होगी। अशांति , तनाव और क्षोभ का सबसे बड़ा कारण असहिष्णुता ही है। समस्त वातावरण इसके दुष्प्रभाव से प्रदूषित है। वातावरण में माधुर्य घोलने और पर्यावरण को विशुद्ध एवं जीवनोपयोगी बनाने के लिए इसकी साधना परमावश्यक है।


   यह मानव देह पुण्य के संयोग से मिली है और हमें इसको शुभ भावों के आलोक से प्रकाशवान बनाना है। प्रत्येक क्षण को परोपकार में लगाकर सार्थक करना है। कहने-सुनने से नहीं , बल्कि आचरण करने से ही अभीष्ट फल की प्राप्ति संभव है।


   माना कि मनुष्य गलतियों का पुतला है। थोड़ी-बहुत कमियां प्रत्येक व्यक्ति में होती हैं। कोई भी व्यक्ति परिपूर्ण नहीं होता। लेकिन लोगों को गलती करते देखकर उन पर गुस्सा करने वाला भी भयंकर गलती करता है।


    इससे बचने का एकमात्र उपाय है-सहनशीलता। इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरों को गलती का अहसास ही न कराएं। अवश्य कराएं , पर यह ध्यान रहे कि गलती बताते समय उन्हें अपमानित या नीचा दिखाने की मानसिकता नहीं होनी चाहिए। एक मात्र पवित्र लक्ष्य सुधार का होना चाहिए।*