इनके लिए न महाराणा प्रताप 'महान' और न ही सावरकर 'वीर'

मार्क्सवादी फोबिया से ग्रस्त कांग्रेसियों के लिए न तो वीर सावरकर 'वीर' हैं और न ही महाराणा प्रताप 'महान'. हां, चित्तौड़गढ़ में 40,000 लोगों का नरसंहार कर अजमेर शरीफ पर सजदा करने वाला अकबर जरूर इनके लिए महान है. अकबर के समय में लिखे गए राजदरबारी फारसी वृत्तान्त ही इनके ऐतिहासिक स्रोत हैं. राजस्थान के लिखित और वहां पढ़े जाने वाले साहित्य को ये देखना तक उचित नहीं समझते, क्योंकि इनकी मानसिकता मार्क्स के इस कथन से आज भी ग्रस्त है कि भारत का कोई इतिहास ही नहीं है. भारत का इतिहास तो केवल आक्रांताओं का इतिहास है. ऐसी मानसिकता से पीड़ित लोग भारतीय इतिहास के हर गौरवशाली पक्ष को दरकिनार कर केवल भारत को कोसना जानते हैं. अपने आपको मार्क्सवादी इतिहासकार कहने और 'जनता का इतिहास' लिखने का दावा करने वाले इन लोगों के लिए केवल मुगलों की चाकरी करने वाले दरबारियों द्वारा लिखित घटनाक्रम ही इतिहास है और बाकी सब कहानियां-किस्से हैं.


वास्तव में, इनका इतिहास लेखन विशुद्ध रूप से राजनीतिक लेखन है. तथ्यों को दबाना, उन्हें तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करना इनका घोषित लक्ष्य है. कहीं-कहीं तो ये दरबारी इतिहासकारों से भी आगे बढ़ जाते हैं. मलिक कफूर के सोमनाथ मंदिर पर किए गए आक्रमण को ये लोग मात्र 'लूट' मानते हैं. कोई इनसे पूछे कि यदि ऐसा था तो फिर बर्नी ने यह क्यों लिखा कि मूर्ति को तोड़कर बैलगाड़ी से अलाउद्दीन खिजली के पास भेजा गया. यह धर्म पर प्रहार नहीं था तो फिर क्या था? हल्दीघाटी के युद्ध में जब दोनों तरफ से राजपूत मर रहे थे तो उस समय अकबर के सेनापति ने यह कहा था कि मर तो काफिर ही रहे हैं. जिन्होंने मुगलों के आगे कभी सिर नहीं झुकाया, गुफाओं में रहे और घास की रोटी खाई, लेकिन इसके बावजूद अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखी, वे महाराणा प्रताप इनके लिए महान नहीं हैं. तो फिर, अपने को जन इतिहासकार कहने वाले जरा यह भी बता दें कि महानता का पैमाना क्या होता है? एक आक्रांता जो नरसंहार कर अपना साम्राज्य बढ़ा रहा है, वह महान है अथवा वह वीर जो अपनी स्वतंत्रता और सम्मान को कायम रखने के लिए उससे लड़ रहा है? फिर इनके हिसाब से तो बाबर, अकबर, औरंगजेब, नादिरशाह, अब्दाली और अंग्रेज भी 'महान' थे.


यह है मामला


राजस्थान में दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम की पुस्तक 'सामाजिक विज्ञान' में वीर सावरकर पर एक अध्याय है. इसमें उनके लिए 'वीर' विशेषण उपयोग किया जाता था. अब गहलोत सरकार ने उनके नाम के आगे से 'वीर' हटा दिया है. उसका कहना है कि 'सावरकर ने अपनी रिहाई के लिए अंग्रेजों से माफी मांगी थी, इसलिए उन्हें वीर नहीं कहा जा सकता'. राजस्थान सरकार महाराणा प्रताप को भी 'महान' नहीं मान रही. उसका तर्क है कि 'अकबर और प्रताप के बीच राजनीतिक युद्ध हुआ था. दोनों ने सत्ता के लिए लड़ाई लड़ी थी. इसलिए इन दोनों में से किसी को महान नहीं कहा जा सकता.' अब राजस्थान में छात्र महाराणा को महान और सावरकर को वीर के रूप में नहीं पढ़ सकते. सरकार के इस निर्णय से लोगों में काफी नाराजगी है. उनका कहना है कि महाराणा प्रताप ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ी थी और अकबर तो हमलावर का बेटा था. वह तो भारत पर जबरन अधिकार करना चाहता था. इसलिए प्रताप और अकबर को एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.


शायद इसीलिए तो इन्हें वीर शब्द से दिक्कत है. वीर तो इनके लिए केवल वे कांग्रेसी थे, जिन्होंने सभागारों में बैठकर देश का बंटवारा करवाया. वे सावरकर भला इनके लिए वीर क्यों होंगे, जिन्होंने इंग्लैंड में क्रांति का बिगुल बजाया, जिन्होंने 1857 पर पुस्तक लिखकर क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी, जो इतने साहसी थे कि गिरफ्तार कर इंग्लैंड से भारत लाए जाते समय अंग्रेजी जहाज से समुद्र में कूदकर फ्रांस के तट तक तैरकर पहुंचे थे. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनके 'विशेषज्ञ' इतिहासकारों को इस बात का अंदाजा भी है कि अंदमान की जेल किसे भेजा जाता था? कालेपानी की उस जेल में किस तरह की यातनाएं दी जाती थीं? कैसे प्रताड़ित किया जाता था? कितने ही महान क्रांतिकारियों ने वहां आत्महत्या की, कितने ही पागल हो गए. आठ वर्ष तक वीर सावरकर ने अंग्रेजों की इस नृशंसता को झेला. उन्हें पता होना चाहिए कि कांग्रेसी तो जेल जाते ही अपने को राजनीतिक कैदी बताकर 'बी क्लास' की सुविधाएं मांगते थे. क्या किसी कांग्रेसी को कभी अंग्रेजों ने जेल में टाट के वस्त्र पहनाए, जिन्हें पहनकर लगातार बदन छिलता रहता था और शरीर से खून रिसता रहता था? यह वह जेल नहीं थी, जिसमें कांग्रेसी नेताओं की तरह क्रांतिकारियों को खाना बनाने के लिए अपनी पसंद का रसोइया मिल सके. इस जेल में चक्की पिसवाई जाती थी, बागवानी नहीं कराई जाती थी. इस जेल की काल-कोठरियों में क्रांतिकारियों को दी गई यातनाओं की हकीकत बाहर तक नहीं आ पाती थी.


वीर सावरकर ने कालेपानी की इस जेल में कैद और प्रताड़ित हो रहे सभी राजनीतिक कैदियों को माफ करके छोड़े जाने की बात कही थी और यहां तक कहा था कि 'मुझे रिहा नहीं भी किया जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता'. पर, ये दस्तावेज कांग्रेसी और मार्क्सवादी इतिहासकारों को दिखाई नहीं देते. क्रांतिकारी तरह-तरह की गुप्त योजनाएं बनाते थे. कालेपानी में कैद वीर देश के लिए क्या कर सकते थे? यह मत भूलिए कि उन्हें अंग्रेजों ने रिहा नहीं किया, बल्कि रत्नागिरि में लाकर नजरबंद कर दिया था और किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि चलाने पर भी पाबंदी थी.


अभी हाल ही में कुछ ऐसे तथ्य सामने आए हैं जो वीर सावरकर को समझने के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं. यह सर्वविदित है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस 1940 में अपनी गिरफ्तारी से पूर्व वीर सावरकर से रत्नागिरि में मिले थे. उस बैठक में क्या हुआ, यह किसी को मालूम नहीं. परन्तु 1941 में काबुल से बर्लिन जाते समय नेताजी ने अपने भारतीय साथियों को देने के लिए वहां पर इटली के तत्कालीन राजदूत क्वत्रोनी के पास एक पत्र छोड़ा था. दुर्भाग्यवश, यह पत्र भारत नहीं पहुंच पाया और 1948 में पेरिस में नेताजी के बड़े भाई शरत चंद्र बोस को दिया गया. इस पत्र में नेताजी ने एक महत्वपूर्ण बात लिखी थी. नेताजी के अनुसार भारत में अंग्रेज सेना की जो नई भर्तियां कर रहे थे, उनमें अपने विश्वस्त युवकों को भर्ती होने के लिए कहा गया था, जिससे कि वे मौका मिलते ही अंग्रेजों का साथ छोड़कर नेताजी द्वारा भविष्य में बनाई जाने वाली सेना में शामिल हो सकें. आगे हुआ भी यही. वीर सावरकर ने भी अंग्रेजी सेना में युवकों की भर्ती कराई थी.


1946 में आजाद हिन्द फौज की 'रिलीफ कमेटी' को लिखे गए एक पत्र में आजाद हिन्द फौज का एक सैनिक लिखता है – ''सावरकर जी के आदेशानुसार मैं अंग्रेजों की सेना में शामिल हो गया था और जैसे ही मुझे मौका मिला वैसे ही मैं उनके निर्देशानुसार आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गया.'' यह साक्ष्य बहुत कुछ कहता है, पर ऐसे साक्ष्यों को देखने की फुर्सत न तो राजस्थान के वर्तमान मुख्यमंत्री के पास है और न ही उनके 'विशेषज्ञ' इतिहासकारों के पास, क्योंकि उन्हें तो सिर्फ अपनी विचारधारा की ढफली बजानी है. ये लोग यह भूल जाते हैं कि इतिहास को दबाया नहीं जा सकता, इतिहास बोलता है और बहुत सशक्त ढंग से बोलता है. आज की युवा पीढ़ी अत्यंत ही जिज्ञासु है, वह सत्य जानना चाहती है.


प्रो. कपिल कुमार


(लेखक इग्नू में इतिहास विभाग के अध्यक्ष हैं)


साभार – पाञ्चजन्य