शिशिर की शांति छीन आया मधुमास वसंत

तरुण-शकलमिन्दोः बिभ्रती शुभ्रकान्तिः

 कुचभर-नमितांगी सन्निषण्णा सिताब्जे।

निजकर-कमलोद्यत् लेखनी-पुस्तकश्रीः

सकल-विभव-सिद्ध्यै पातु वाग्देवता नः।।


 


 


आचार्य रुपाली सक्सेना 


हस्तरेखा,ज्योतिष व धर्मशास्त्र विशेषज्ञ


   वसंत-पंचमी आ गयी. वसंत का पंचम दिन. शास्त्रकार भले मीन-मेष में पड़े हों-‘मीन-मेषे गते सूर्ये वसन्तः परिकीर्तितः’ या चैत-वैशाख मानते हों. वसंत धीर-प्रशांत नहीं, धीरोद्धत व धीरललित ऋतुनायक है. इसलिए इसने पंद्रह दिनों में ही शिशिर की शांति छीन ली, वसंत-राज्य की घोषणा करवा ली. सरसों फूल ही गयी, रबी की फसलें गदरा ही गयीं... पेड़ों में नयी कोपलें फूटने ही लगीं, तो यह क्यों दम साधे? सूरज ठंड को गरमाने ही लगे, तो यह क्यों घुड़की मारे रहे? ऋतुराज का दूत रसाल मंजरियां लेकर आ ही गया.

 

 माघ शुक्ल पंचमी को श्रीपंचमी, वसंत-पंचमी नाम यों ही तो नहीं दिया गया होगा? यों ही वसंत राग का काल यहीं से नहीं न माना गया होगा! यह आया, तो पक्षियों के कलरव, प्रकृति पर प्रभाव, ठिठुरन-जकड़न की जगह स्फूर्ति लिये आया. वाग्देवी को मना लाया, लक्ष्मीदेवी को मना लाया और तो और मित्रवर काम को भी मना लाया. साथ में ससम्मान लिये आता है सृष्टि देवी को, ज्ञान, वाणी एवं कला की आदि स्रोतस्विनी सरस्वती को. तभी तो इन सबकी इस दिन पूजा की शास्त्रीयता है.

 
श्रीवाली पंचमी की श्रीयुत पंचमी. यह शब्द महिमामय है. लक्ष्मी, सरस्वती, शोभा, सम्मान आदि को अपने में समेटा वसंत प्राकृतिक शोभा के साथ-साथ दोनों महादेवियों के साहचर्य का संकेतक भी है. दीपावली में धन की देवी की वरीयता और बही के रूप में पूजी जानेवाली ज्ञानदेवी की गौणता रहती है, तो यहां ज्ञानेश्वरी की मुख्यता और धनेश्वरी की गौणता.

 

परंतु दोनों की अनिवार्यता को नकारा नहीं गया. क्या ज्ञान के बिना कुछ हो पायेगा? क्या धन के बिना कुछ हो पायेगा? तभी तो ईश्वर-परमेश्वर को भी भगवान बनने के लिए इन दोनों को सहचरी बनाना होता है. इसलिए कहीं-कहीं लक्ष्मी-सरस्वती दोनों को ही विष्णु-शक्ति बताया गया है. सरस्वती को द्वितीय लक्ष्मी-‘मुक्तिःमूर्तिमयी साक्षात् द्वितीया कमलालया’ भी कहा गाया है.

 

कारण है कि विद्या भी धन ही है-‘विद्या-धनं सर्वधन-प्रधानम्’. जहां परा विद्या पारलौकिकता की ओर ले जाती है, वहीं अपरा विद्या जीवन-यापन से संबंधित ज्ञानार्जन, धनार्जन की ओर. हमारे जीवन में दोनों का समान मूल्य है.

 

 ज्ञान को सत्त्व गुण-प्रधान माना गया है, इसलिए ज्ञान की देवी शुक्लवर्णा बतायी गयी हैं-‘शुद्ध-सत्त्व-स्वरूपा सा शांतरूपा सरस्वती’. श्वेता, महाश्वेता भी कहा जाता है. यह केवल श्वेतवर्णा ही नहीं, श्वेतप्रिया भी हैं, तभी तो पूजा में इन्हें अर्पणीय वस्तुओं में सफेद चंदन, श्वेत वस्त्र, शंख,सुगंधित श्वेत पुष्प, मक्खन, दही, दूध, लावा, मिसरी, नारियल, सफेद तिल की मिठाई आदि का विशेष शास्त्रीय निर्देश है!

 

 ज्ञान के समस्त स्रोतों की जननी सरस्वती ही हैं, इसलिए यह विद्यार्थियों, अध्यवसायियों विद्वानों, कवियों, गायकों, वादकों, कला प्रेमियों, ऋषि-मुनियों तथा देवताओं की इष्ट देवी हैं-

 

श्रेष्ठा श्रुतीनां शास्त्राणां विदुषां जननी परा।

वागधिष्ठातृ-देवी सा कवीनाम् इष्टदेवता।।

 

उत्पत्ति किस रूप में हुई : सरस्वती आदिशक्ति ही हैं, दुर्गा ही हैं; इसलिए सर्वशक्ति-स्वरूपा आद्या, विद्या हैं, परंतु मूर्तिमती व देवीरूपा सरस्वती का आविर्भाव कहीं परमात्मा व कृष्ण के मुख से तो कहीं आदिदेवी से बताया गया. पुनः कहीं ब्रह्मा जी से भी वर्णित हैं. जहां सप्त सरस्वतियां हैं, नौ अंगदेवियां हैं, वहां किनकी उत्पत्ति किस रूप में हुई, यह कहना मुश्किल है.

 

तो भी विधाता की पुत्री और पत्नी दोनों होना मानवीय सामाजिक-पारिवारिक मर्यादा के विपरीत है. वस्तुतः यहां समाजशास्त्र नहीं, पराविज्ञान से ही देखना होगा. कारण कि यह दैवी लीला है, प्रकृति-पुरुष की समन्विति है. लोकदृष्टि से भी प्रत्येक सृजन सर्जक की संतान ही होता है. एक साहित्यकार की रचना भी उसकी पुत्री ही है. औरस नहीं, मानस ही सही.

 

वह अपनी कृति के साथ खूब रमण भी करता है और प्यार से पालता भी है. इसलिए पिता भी है, पति भी है. यही तथ्य ब्रह्मा और ब्रह्माणी के साथ भी है. इस प्रसंग में ऐसी ही दृष्टि अपनानी होगी, तभी मन में मैल नहीं बैठेगा. आखिर परा शक्तियां किस रूप में कैसे सृष्टि का संस्कार करती हैं, ये तो हमारी पहुंच से दूर है न!

 

 

कैसे करें मां की आराधना

माघ माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि (10 फरवरी) को मां सरस्वती के पूजन का विधान है. अतः सुबह नित्यकृत्य से निवृत्त होकर शुद्ध वस्त्र धारण करें. पूजास्थान में शांतिपूर्वक बैठ जाएं. संक्षेपतः पुस्तक, कलम-दवात को पवित्र आसन पर रख लें. उसके आगे षट्कोण बना लें और छहों कोणों में रोली-मिश्रित अक्षत रखें.

 

अपने बायीं ओर घी का रक्षादीप जला लें. अब शुद्ध जल से छिड़काव कर शुद्धि करें. तिलक लगाएं. हाथ में सुपारी, फूल, अक्षत, रोली, पैसा और जल लेकर संकल्प करें- ‘ऊँ विष्णुः विष्णुः विष्णुः नमः परमात्मने अद्य माघ-शुक्ल-पंचम्यां रविवारे..... गोत्रे उत्पन्नः/उत्पन्ना अहं ...नामाहं/नाम्नी अहं श्रुति-स्मृति-पुराणोक्त फल-प्राप्तये श्रीसरस्वती-प्रीतये च यथाशक्ति षड्देवता-पूजन-पूर्वकं सरस्वत्याः, लक्ष्म्याः, काम-वसन्तयोः च पूजनं करिष्ये’. 

 

इतना बोलकर षट्कोण के पास संकल्प के जलादि रख दें. अब षट्कोण के छहों कोष्ठको में ‘ऊँ गं गणपतये नमः, ऊँ सूर्याय नमः, ऊँ अग्नये नमः, ऊँ विष्णवे नमः, ऊँ महेश्वराय नमः, ऊँ शिवायै नमः’ कह कर गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव एवं पार्वती का जल, रोली, फूल, धूप, दीप, प्रसाद देकर पंचोपचार से पूजन करें-

 

तरुण-शकलमिन्दोः बिभ्रती शुभ्रकान्तिः

 कुचभर-नमितांगी सन्निषण्णा सिताब्जे।

निजकर-कमलोद्यत् लेखनी-पुस्तकश्रीः

सकल-विभव-सिद्ध्यै पातु वाग्देवता नः।।

 

पुस्तक, लेखनी, दवात, वाद्ययंत्र आदि पर गुरुप्रदत्त अथवा इस सरस्वती मंत्र-‘ऊँ ह्रीं ऐं क्लीं ऊँ सरस्वत्यै नमः’ से अक्षत छोड़ कर आवाहन करें. इसी मंत्र से या श्रीसूक्त के मंत्रों से षोडशोपचार पूजन करें. फिर ‘ऊँ लक्ष्म्यै नमः’ से लक्ष्मीजी का, अनंतर आम्रमंजरी पर ‘ऊँ कामदेव-वसन्ताभ्यां नमः’ मंत्र से कामदेव एवं वसंत का अर्चन करें.